राजा की रानी
उनकी कुछ बातें सुनने के बाद ही मैं न जाने कैसा अन्यमनस्य-सा हो गया था। इसका कारण भी था। मैंने सोचा था कि इनकी बातों में सिवा इसके कि एक तरफ अपने पक्ष का स्तुतिवाद-दया, दाक्षिण्य, तितिक्षा आदि जो कुछ भी शास्त्रोक्त सद्गुणावली मनुष्य-जन्म में सम्भव हो सकती है, उन सबकी विस्तृत आलोचना- और दूसरी तरफ उसके विपरीत जितना भी कुछ आरोप हो सकता है, सन्, तारीख, महीना और अड़ोसी-पड़ोसियों की गवाहियों के सहित उन सबका विशद वर्णन हो, ओर हो ही क्या सकता है? शुरू में थी भी यही बात- परन्तु सहसा उनके कण्ठ-स्वर के आकस्मिक परिवर्तन से उनकी तरफ मेरा ध्या न आकर्षित हुआ। मैंने ज़रा विस्मित होकर ही पूछा, “क्या हुआ है?” वे क्षण-भर मेरे चेहरे की तरफ देखती रहीं, फिर रुँधे हुए गले से कहने लगीं, “होने को अब बाकी क्या रहा है बाबू? सुना है कि कल शायद देवरजी खुद हाट में जाकर बैंगन बेच रहे थे।”
बात पर ठीक से विश्वास नहीं हुआ और मन चंगा होता तो शायद हँस भी पड़ता। मैंने कहा, “अध्याुपक आदमी ठहरे वे, अचानक बैंगन उन्हें मिल कहाँ से गये, और बेचने गये तो क्यों?”
कुशारी-गृहिणी ने कहा, “उसी अभागिनी की बदौलत। घर में ही शायद कुछ बैंगन पैदा हुए थे, इसी से उन्हें बेचने भेज दिया हाट में। इस तरह दुश्मनी निभाने से भला गाँव में कैसे टिका जा सकता है, बताइए?”
मैंने कहा, “मगर इसे दुश्मनी निभाना क्यों कह रही हैं? वे तो आपकी किसी भी बात में हैं नहीं। तंगी आ गयी है, यदि अपनी चीज़ बेचने गये, तो इसमें आपको शिकायत क्यों हो?”
मेरी बात सुनकर वे विधल की भाँति मेरी ओर देखती रहीं, फिर बोलीं, “अगर आपका यही फैसला है तो मुझे आगे कुछ भी कहने को नहीं है, और न मालिक के सामने मेरी कोई फर्याद ही है- मैं जाती हूँ।”
कहते-कहते अन्त में कण्ठ बिल्कुील रुक-सा आया, यह देखकर मैंने धीरे-से कहा, “इससे तो बल्कि आप अपनी मालकिनजी से कहें तो ठीक हो, शायद आपकी बातें समझ भी सकेंगी, और आपका उपकार भी कर सकेंगी।”
वे सिर हिलाकर कह उठीं, “अब मैं किसी से कुछ नहीं कहना चाहती, और किसी को मेरा उपकार करने की जरूरत भी नहीं।” यह कहकर सहसा उन्होंने अपने ऑंचल से ऑंखों को पोंछते हुए कहा, “शुरू-शुरू में वे कहा करते थे कि महीने-दो महीने बीतने दो, आप ही लौट आएगा। उसके बाद हिम्मत बँधाया करते थे कि बनी न रहो और दो-एक महीने चुपचाप, सब सुधर जायेगा-पर ऐसी ही झूठी आशा में यह दूसरा साल लगना चाहता है। लेकिन कल जब सुना कि ऑंगन में लगे हुए बैंगन तक बेचने की नौबत आ गयी, तब फिर किसी की बातों पर मुझे भरोसा न रहा। अभागी सारी गृहस्थी को तहस-नहस कर डालेगी, पर उस घर में पाँव न रक्खेगी। बाबू, औरत की जात ऐसी पत्थर-सी हो सकती है, यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।”
वे फिर कहने लगीं, “वे उसे कभी नहीं पहिचान सके, मगर मैं पहिचान गयी थी। शुरू-शुरू मैं इसका उसका नाम लेकर छिपा-छिपाकर चीज़-वस्तु भेजा करती थी, वे कहा करते कि सुनन्दा जान-बूझकर ही लेती है- लेकिन ऐसा करने से उसका दिमाग़ ठिकाने न आएगा। मैंने भी सोचा कि शायद ऐसा ही हो। मगर एक दिन सब भ्रम दूर हो गया। न मालूम कैसे उसे पता लगा, सो मैंने जो कुछ भिजवाया था, सबका सब एक आदमी के सिर पर लादकर वह मेरे ऑंगन में फेंक गयी। मगर इससे भी उन्हें होश न आया- मैं ही समझी।”
अब आकर उनके मन की बात मेरी समझ में आई। मैंने सदय कण्ठ से कहा, “अब आप क्या करना चाहती हैं?- अच्छा, वे क्या आप लोगों के विरुद्ध कोई बात या किसी तरह की शत्रुता निभाने की कोशिश कर रहे हैं?”
कुशारी-गृहिणी ने फिर एक बार रोकर अपनी तकदीर ठोकते हुए कहा, “फूटी तकदीर। तब तो कोई उपाय भी निकल आता। उसने हम लोगों को ऐसा छोड़ दिया है कि मानो कभी उसने हम लोगों को ऑंखों से देखा तक न हो, नाम भी न सुना हो। ऐसी कठोर, ऐसी पत्थर है वह। हम दोनों को सुनन्दा अपने माँ-बाप से भी ज्यादा चाहती थी; पर जिस दिन से उसने सुना कि उसके जेठ की सम्पत्ति पाप की सम्पत्ति है, उसी दिन से उसका सारा हृदय जैसे पत्थर का हो गया। पति-पुत्र को लेकर वह दिन-पर-दिन सूख-सूख के मर जायेगी, पर उसमें से दमड़ी भी न छुएगी। लेकिन बताइए भला, इतनी बड़ी जायदाद क्या यों ही बहा दी जा सकती है बाबू? वह ऐसी दया-माया-शून्य है कि बाल-बच्चों के साथ बिना खाए-पिए भूखों भी रह सकती है, मगर हम तो ऐसा नहीं कर सकते।”
क्या जवाब दूँ, कुछ सोच न सका, सिर्फ आहिस्ते से बोला, “अजीब औरत है।”
दिन उतरता जा रहा था, कुशारी-गृहिणी चुपचाप गरदन हिलाकर मेरी बात का समर्थन करती हुई उठ खड़ी हुईं। फिर सहसा दोनों हाथ जोड़कर कह उठीं, “सच कहती हूँ बाबू, इनके बीच में पड़कर मेरी छाती के मानो टुकड़े हुए जा रहे हैं। लेकिन, इधर सुनने में आया है कि वह बहूजी का कहना बहुत मानती है, क्या कोई उपाय नहीं हो सकता? मुझसे तो अब नहीं सहा जाता।”
मैं चुप बना रहा। वे भी और कुछ न कह सकीं-उसी तरह ऑंसू पोंछते चुपचाप बाहर चली गयीं।